एक बढ़िया-रोचक सस्पेंस फिल्म में सबसे जरूरी चीज यही होती है कि अंत तक उसका रहस्य बना रहे। खासतौर से ‘कातिल कौन’ सरीखी किसी फिल्म में, जिसमें शक की सुईं कभी एक पर तो कभी किसी दूसरे पर जाकर घूमने लगती है और अंत में पता चलता है कि कत्ल वाली रात उस कमरे में कोई और भी आया था। सन 1969 में आयी राजेश खन्ना और नंदा की यश चोपड़ा निर्देशित ‘इत्तेफाक’ का रीमेक, जिसे अभय चोपड़ा ने निर्देशित किया है, कई मामलों में एक अच्छी सस्पेंस फिल्म है। अंत तक इसका रहस्य बरकरार रहता है और अगर सोशल मीडिया पर कोई चुगली-चुहलबाजी न करे, तो अंदाजा लगाना भी मुश्किल है कि कातिल कौन है। दो लोगों के अलग-अलग के बयानों के बीच उलझे एक पुलिस इंस्पेक्टर की इस कहानी को थोड़े अलग स्टाइल में जानना जरा रोचक रहेगा।
फ्रेम नंबर 1
विक्रम सेठी (सिद्धार्थ मल्होत्रा) पुलिस से बच कर भाग रहा है उसने अपनी पत्नी कैथरीन का खून किया है। पुलिस को चकमा दे विक्रम एक महिला माया (सोनाक्षी सिन्हा) के घर में जा घुसा है। माया किसी तरह उससे बच कर निकल जाती है। वो वापस पुलिस को लेकर आती है और देखती है कि उसके पति शेखर की लाश जमीन पर पड़ी है और विक्रम पास में खड़ा है।
फ्रेम नंबर 2
विक्रम पुलिस को बताता है कि उसने कैथरीन का खून नहीं किया है और ये महज इत्तेफाक है कि वह माया के घर में है। उसे नहीं पता कि शेखर कैसे मरा। विक्रम का आगे का बयान माया को शक के घेरे में ला देता है, क्योंकि जब वह यहां पहुंचा, तो उसने परिस्थितियां संदेहास्पद लगीं। माया डरी हुई थी और बार-बार बेडरूम लाक कर रही थी, शीशे की टेबल चकनाचूर थी वगैराह वगैराह…
फ्रेम नंबर 3
घटना वाली रात करीब दो बजे इंस्पेक्टर देव (अक्षय खन्ना) का फोन बजता है। पता चलता है कि किसी नामी वकील शेखर का कत्ल हो गया है। मौके से मिले दो गवाह, देव और माया की अपनी-अपनी बयानबाजी है। लेकिन देव को इन बयानों से परे जाना है, क्योंकि अब इन दो कहानियों में विक्रम और माया के अलावा भी कुछ किरदार जुड़ गये हैं। डस्टबीन से मिले फटे हुए फोटोज, एक वीडियो क्लिप, जिससे खून हुआ वह वास के अलावा विक्रम, देव को बताता है कि रात माया से मिलने कमरे में कोई और भी आया था। पिछली फिल्म की तुलना में इस फिल्म में कोई बहुत ज्यादा बदलाव नहीं हैं। एक सस्पेंस फिल्म में पैनापन बनाए रखने के लिए पटकथा को थोड़ा और चुस्त किया गया तथा नैरेशन का ढंग बदल दिया गया है, जो प्रभावी लगता है। दरअसल, विक्रम और माया की कहानियां सुनने के बाद देव के मन में बढ़ने वाली उलझने एक दर्शक बन आप महसूस कर सकते हैं। देव की ही तरह आप भी माथा धुनने लगेंगे कि आखिर सच क्या है। और जब तथ्यों के साथ निष्कर्ष के रूप में सच सामने आता है, तो मुंह से निकलता है- ‘देखा मेरा अंदाजा सही था ना…’
लेकिन अभय चोपड़ा फिल्म को यहां से थोड़ा सा और आगे लेकर गये हैं और पौने दो घंटे की इस फिल्म का थ्रिल अंत के दस मिनटों में उन्होंने उडे़ला है। ‘कातिल कौन’ सरीखी फिल्मों में इससे ज्यादा बात करना मजा किरकिरा कर देता है। हां इतना जरूर है कि इस फिल्म की कहानी अपने नाम की तरह इत्तेफाक तो नहीं लगती। ये प्लाट एक पूर्व नियोजित मर्डर मिस्ट्री का है। फिल्म की मेकिंग अच्छी है। लेकिन विक्रम के रूप में सिद्धार्थ मल्होत्रा अपने अभिनय से प्रभावित नहीं कर पाते। दुख, पछतावा, निराशा आदि भाव उनके चेहरे पर आते ही नहीं। इस फिल्म के लिए राज कुमार राव बेहतर रहते। इसी तरह माया के लिए सोनाक्षी से बेहतर शायद राधिका आप्टे या हुमा कुरैशी रहतीं। जिसके मन में चोर होता है उसकी आंखें उसका जुर्म बयां करती हैं। यहां सोनाक्षी की आंखों और हाव-भाव, किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया। फिल्म के तीन मुख्य किरदारों में केवल अक्षय खन्ना अपने अभिनय से बांध पाये हैं।
हल्की-फुल्की झल्लाहट, तेजी, मध्यम सुर और तने हुए शरीर में थोड़ी सी आलस उनके किरदार में रोचक तत्व भरता है। इसके अलावा फिल्म का पहला भाग थोड़ा और कसा हुआ हो सकता था। एक साथ दो कहानियों का चलना प्रभावी तो लगता है, लेकिन कहानी में बहुत अधिक तत्व न होने की वजह से कई सीन्स को बोझिल भी बना देता है।