रितेश सिन्हा | नीतीश कुमार ने बिहार के छठे मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण कर लिया। दरअसल जितनी तेजी से बिहार का घटनाक्रम बदला, उसकी उम्मीद आम आदमी तो छोड़िए राजनीतिक दलों को भी नहीं थी। यह अपने आप में ऐतिहासिक कही जा सकती है क्योंकि भारतीय संसदीय और राजनीतिक इतिहास में इस तरह का उदाहरण अभी तक नहीं देखा गया था कि एक गठबंधन से निकले हुए चौबीस घंटे भी नहीं हुए कि दूसरे गठबंधन के साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी गई हो। राजनीति पंडितों के साथ संविधान विशेषज्ञ भी भौचक्क हैं। मगर यह सब हुआ और नीतीश कुमार ने महागठबंधन की दीवार को तोड़कर भाजपा के साथ न सिर्फ सरकार बना लिया, बल्कि कल तो नीतीश सरकार पर सबसे बड़ा प्रहार कर रहे थे, उसी भाजपा के सुशील मोदी फिर से उपमुख्यमंत्री बनाए दिए गए। इसके पूर्व भी एनडीए के साथ नीतीश मंत्रीमंडल में सुशील मोदी नंबर टू का दर्जा रखते थे। अब सवाल उठता है कि नीतीश के अचानक पाला बदलने के पीछे कौन से कारण थे। मीडिया के हलकों में राजनीतिक बयानवीरों की तर्ज पर इस बात को अधिक प्रचारित किया जा रहा है कि नीकु राजद-कांग्रेस के साथ अहसज महसूस कर रहे थे। उपमुख्यमंत्री तेजस्वी पर भ्रष्टाचार के आरोप के बाद भी इस्तीफे न देने की वजह से नीतीश ने खुद गठबंधन से अलग करते हुए पहले इस्तीफा दिया, फिर भाजपा विधायकों के साथ सरकार बना लिया।
मगर इसकी पटकथा में कई रोमांचक मोड़ हैं, जिस पर से आने वाले समय में पर्दा उठेगा। नीतीश को इस बात का अहसास है कि 2019 के लिए उनके लिए राजनीति बिल्कुल खत्म हो चुकी है, वे न तो किसी दल के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं न ही उनके पास संख्या बल है। ऐसे में उन्होंने पाला बदलने में भी अपनी भलाई समझी। इस समय में बिहार की राजनीतिक त्रिमूर्ति लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार तीनों ही इस स्थिति में नहीं हैं कि प्रधानमंत्री का चेहरा 2019 के लोकसभा चुनाव में बन सके। पासवान तो पहले से पाला बदल कर एनडीए के साथ हो लिए और चाहे कोई भी सत्ताधारी दल केंद्र में हो, वे अपना मंत्रीपद बरकरार रखने में कामयाब साबित हुए हैं। नीतीश भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता से इस मुगालते में नहीं है कि उनका कोई चांस है। हां अगर भाजपा के साथ बिहार में वे 2019 तक गठबंधन चलाने में कामयाब रहते हैं तो मुख्यमंत्री तो बने ही रहेंगे। भाजपा भी बिहार के करारी हार के बाद खुद का किला मजबूत करने की कवायद में जुट गई है। अगर अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा को जदयू से अधिक सीटें आती हैं, तब नीतीश के लिए सीएम की कुर्सी दूर की बात होगी। उन्हें केंद्र में एडजस्ट करने की बात हो सकती है, मगर वहां उन्हें काम करने की कितनी आजादी नीकु को मिलेगी, इसका उत्तर राजनीतिक दल जानते हैं। यानी नीकु के पास आगे कुआं पीछे खाई वाला मामला था इसलिए उन्होंने पाला बदलने में देर नहीं दिखाई।
बिहार के भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं। श्रीकृष्ण बाबू से लेकर वर्तमान में नीतीश कुमार तक, हर एक के मुख्यमंत्रित्व काल में भ्रष्टाचार और गलत आचरण के छींटे सत्ताधारी दल के नेताओं पर लगे हैं। कइयों ने जेल की हवा तक खाई। कई चर्चित कांड भी हुए। यानी कांग्रेस हो या राजद, जदयू हो या फिर भाजपा, लगभग हर दलों के नेताओं के कथनी और करनी में अंतर रहा है। मगर वर्तमान में हालात ऐसे क्यों हुए। नीतीश सरकार पर ब्रजेश हत्याकांड का आरोप पहले की झेल रहे हैं, बिहार की शिक्षा व्यवस्था पूर्व मंत्री और नीतीश के चहेते रहे अशोक चौधरी के रहते बदहाल हो चुकी थी, जिसका सियासी हल निकालने में वे नाकामयाब साबित हुए। इसी बीच खबरें यह थी कि जदयू के 18 विधायक राजद के संपर्क में थे और कभी भी पार्टी टूट सकती थी। जब नीकु को यह भनक पड़ी तो उनकी पैरों तले जमीन खिसक चुकी थी। बेगूसराय से भाजपा के सांसद भोला प्रसाद सिंह को शायद इसकी भनक पहले ही लग चुकी थी, उन्होंने नीतीश सरकार के खिलाफ विद्रोही तेवर लिए सुशील मोदी को उनसे मिलने का सुझाव दिया। फिर केंद्र की तरफ से इशारा मिलते ही छोटे मोदी नीकु के साथ बैठक करने पहुंच गए और फिर नए गठबंधन की राह आसान हुई।
भाजपा जानती थी कि बिहार की इस बदली हुई परिस्थिति में अगर मध्याविधि चुनाव हो जाए तो केंद्र सरकार की तीन साल के कार्यों के अलावा नीतीश की प्रशासकीय विफलता भी जनता के सामने आती। लालू केंद्र के इशारे पर सीबीआई द्वारा किए गए कार्रवाही को भुनाने में देर नहीं करते। उधर तेजस्वी यादव भी पूरे बिहार का दौरा करने का मन बना रहे थे जिससे यादव वोटों के साथ-साथ पिछड़ों के अन्याय की बातों को जनता के बीच उभारकर अपने वोट बैंक को मजबूत करने का प्रयास करते। यानी लालू कुनबा खुद को कंेंद्र और नीतीश की शह पर खुद शहीद बताकर कांग्रेस का साथ लेकर पिछड़ों, मुस्लिम और ओबीसी वोट बैंक को भुना सकती थी, ऐसे में भाजपा और जदयू का रास्ता आसान नहीं रहता। मोदी के 2019 के सपनों को तगड़ा झटका लग सकता था। राजनीतिक दूरदर्शिता, अवसरवाद और धोखा ये चंद शब्द हैं जो बिहार की नई राजनीतिक फिजां में राजनीति के धुरंधरों की जुबां से निकल रहा है।
एनडीए कुनबा खुश है तो समूचा विपक्ष नीतीश को मौकापरस्त और अवसारवाद कहने का कोई मौका नहीं चूक रहा। मगर हैरानी की बात है कि जदयू के सांसद इनकी मुखालफत कर रहे हैं। सबसे पहले जदयू के वरिष्ठ नेता शरद यादव की नाखुशी बाहर आई। उन्होंने नीतीश के इस पाला बदल को हड़बड़ाहट में लेने वाला फैसला बताया। शरद ने जवाहर भवन जाकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मुलाकात की। उन्होंने शाम पांच बजे अपने आवास पर नीतीश कुमार से नाराज नेताओं की बैठक बुलाई है। बैठक में अली अनवर और विरेंद्र कुमार शामिल होंगे। अली अनवर समेत पार्टी में एक बड़ा तबका भाजपा के साथ गलबहियां से बेहद नाराज दिख रहा है। वहीं पसमांदा समाज के लिए लड़ने वाले अली अनवर ने भी नीकु के इस फैसले पर अपना मौन विरोध जताया है। उन्होंने कहा कि मेरी अंतरात्मा इस बात को एक गलत फैसला मानती है। मगर इन सबके बीच एक बड़े समाचार पत्र के वरिष्ठ संपादक रहे और वर्तमान राज्यसभा सांसद हरिवंश नीतीश के फैसले के साथ खड़े दिखते हैं। वे राजपूत विरादरी से आते हैं और वर्तमान में भाजपा इस जाति पर बेहद मेहरबान रही है। देश के अधिकांश भाजपा शासित राज्यों के मुखिया इसी जाति से आते हैं, ऐसे में उनके जदयू कोटे से कंेंद्र में मंत्री बनने की राह आसान हो सकती है। खैर जदयू में नई परिस्थितियों में दो फाड़ होना तय माना जा रहा है। अगर ऐसा होता है तो नीतीश के लिए यह नई सियासत कांटों का ताज न बनकर रह जाए।
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