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नीतीश का भागवत-ज्ञान

बाबा विजयेन्द्र, संपादक, स्वराज खबर | नीतीश श्मसान-वैराग्य के शिकार हो गए हैं। यह नीतीश का भागवत-ज्ञान का ही कमाल है। क्या लेकर आये थे और क्या लेकर जायेंगें? नीतीश ‘नीड’ और ‘ग्रीड’ की बात कर रहे हैं। नीतीश लोभ और लाभ के अंतर को समझा रहे हैं। नीतीश के छल और प्रपंच को समझा जा सकता है। नीतीश गांधी को कोट करते हैं। अंतरात्मा की आवाज नीतीश कुमार कुछ ज्यादा ही सुन लिए हैं। यही अंतरात्मा की आवाज अली अनवर जैसे अनेकों लोगों को सुनायी दे रही है।शरद को भी सुनायी पड़ रही है। आत्मा का स्वर बिहार की सियासत में हर जगह व्याप्त हो रहा है। नीतीश के दल में भी यादव और मुसलमान विधायक हैं। इन्हें भी देर-सबेर आत्मा की आवाज सुनायी देगी। आसान नहीं है डगर सत्ता की। नीतीश बखूबी इसे जानते हैं। नीतीश के पास आत्मिक-स्वर है, पर आत्मिक-सम्बन्ध नहीं है। इनकी आत्मा अमर है। इनकी सत्ता भी अमर है। कुर्सी अमर है। नीतीश मुख्यमंत्री रहते ही संसार त्यागना चाहते हैं।

नीतीश के जीवन का इतना बड़ा पराजय अकल्पनीय है। जननायक होने या गांधी होने के लिए मंत्री और मुख्यमंत्री होने की जरुरत नहीं होती है। जिन्हें गांधी लोहिया नहीं बनना होता है वही पद और पैसा के पीछे दौड़ते हैं। लोहिया के जिन्दा जमात होने का मतलब अवसरवाद और सुविधा नहीं है।महागठबंधन की सरकार अचानक राजग की सरकार हो जाए उसमें सिद्धांत और दर्शन कहाँ है। बेहतर होता कि तेजस्वी और नीतीश दोनों ही इस्तीफ़ा देते और महागठबंधन में नए नेतृत्व को जगह और अवसर देते। लालू तो दल के नाम पर निजी कंपनी चलाते हैं यह तो किसी छुपी हुई नहीं है। पर नीतीश को राजनीती का रोल मॉडल बनना था। नयी पीढी को बेहतर राजनीति का मन्त्र देना था। पर नीतीश मन्त्र फूंकने के बजाय तंत्र की शरण ले लिए।

यह चौकाने वाली बात है कि बिहार की राजनीति में पिछले दिनों सम्राट अशोक चर्चा में आये। सभी दल अपने अपने सम्राट की घोषणा भी कर रहे थे। नीतीश जी को भी उनके समर्थकों ने सम्राट अशोक घोषित किया था। लालू-विजय नीतीश के लिए कलिंग विजय से ज्यादा कुछ नहीं है। पर इस संघम शरणम गच्छामि में इस अशोक का संघ बदल गया है।
फिर मारा गया धनानंद। मगध-साम्राज्य के पतन के कारणों को अब समझना आसान हो गया है। भाजपा अट्टहास कर रही है। महागठबंधन का मलबा इधर-उधर बिखरा हुआ है। विषमता के खिलाफ विद्रोह की आग शांत हो चुकी है। लालूनुमा विद्रोह से समाज तो नहीं बदलेगा। विषमता के खिलाफ लालू की लडाई बहुत ही वीभत्स है। इस खंडित चेतना से बदहाल बिहार में कोई भी बदलाव नहीं होना है। यथास्थितिवादी शक्तियां नित्य अपने पैतरे बदल रहे हैं। समता की लडाई को कुंद करने के लिए ना जाने कितने षड्यंत जमीन पर हैं। सत्य प्रतारित करता है पर पराभव नहीं देता। लालू का सत्य सामने आकर नाच रहा है। इस नृत्य नाटिका में सबसे क्षति हुई है तो वह है बहुसंख्यक बिहार की। बहाना जो भी हो सत्ता हासिल करना ही एक मात्र लक्ष्य है।
इस स्थिति में बिहार को कौन लीड करेगा।जिसकी चेतना में पूरा बिहार नहीं हो वे भला बिहार का भला कैसे कर पायेंगे। सगापेक्षी सियासत से जनापेक्षी राजनीति का घटित होना असंभव होगा।
बिहार में अभी कोई राजनीतिक क्रिया नहीं बल्कि प्रतिक्रिया और प्रतिप्रतिक्रिया की कथा लिखी जा रही है। आगामी चुनाव तक बिहार जात जात खेलने में व्यस्त रहेगा। राजनीति की मंडी में जातियों की बोली लगेगी ।मोल तोल और जात का जोड़ घटाव के रोजनामचे की राजनीति नग्न नृत्य करती नजर आयेगी। बिहार की राजनीति देश को दिशा देती है। पर बिहार की अराजकता ने देश को निराश किया है। दुनिया के इस बड़े लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं। केवल सरकार से समाज नहीं बनता है। समाज बनता है सरोकार से। लालू को अवसर मिला है अपनी राजनीति को परिमार्जित करने का। परिवार से निकले बिना समाज नहीं बनेगा। अगर ऐसा लालू नहीं करते हैं तो वक्त के अपराधी ही होंगें। नीतीश की राजनीति की प्रतिक्रिया में प्रतिक्रिया करना औसत दर्जे की बात होगी। वक्त है सामाजिक न्याय की शक्तियों को अपनी वैचारिक बड़ी करने की।

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