बाबा विजयेन्द्र, सम्पादक, स्वराज खबर | बिहार के सियासी आकाश में आरोपों के बादल छाये हुए हैं। गठबंधन के सामने गतिरोध बरक़रार है। इधर रायसीना का रास्ता बारिश के पानी से धुल चुका है। कमल को खिलने के लिए अब विशेष कीचड़ की आवश्यकता नहीं रह गयी है। बीस को आने वाले परिणाम में कोविंद बीस ही साबित होंगें। मीरा के भजन में अब देश को कोई रस नहीं है। तीनों सेनाओं के साथ-साथ संघ की सेना भी कोविंद को सलामी देने के लिए तैयार है। कयास अब कोविंद की जीत को लेकर नहीं रह गया है। कयास अब महागठबंधन की हार को लेकर है। इस्तीफे के भंवर में फंसी नाव को निकालने की हर संभव कोशिश जारी है। नीतीश की नाव बिना ‘मांझी’ की ही है। नीतीश के हाथ में स्वयं की पतवार है। डूबना और किनारा लग जाना अब इन्ही के हाथ में है। गांठें ढीली पड़ गयी है। इस बीच पटना में गंगा का पानी बहुत बह चुका है। नीतीश और लालू दोनों अपने-अपने मिजाज के अनोखे नेता हैं। और दोनों अपने अपने स्टैंड लिए खड़े हैं।
शुतुरमुर्ग की तरह लालू और नीतीश तूफानों से नहीं बच सकते हैं। सामने की चुनौतियों को केवल अब समाधान चाहिए। तेजस्वी रहेगा या जाएगा या गठबंधन बचेगा या फिर ख़त्म हो जाएगा? तेजस्वी के इस्तीफे के बाद गठबंधन का भविष्य क्या होगा? नीतीश स्वयं इस्तीफ़ा देंगें या फिर इस्तीफ़ा लेंगें? भाजपा में जायेंगें या फिर एकला चलो का एकालाप करेंगें। इन तमाम प्रश्नों पर सियासी मंथन जारी है। इस मंथन से निकलने वाले नवनीत को पाने की मोदी की मोहिनी-सेना की अपनी छलबली कोशिशें तो जारी ही हैं।
परिणाम जो भी आये सवाल लालू के जनाधार का है। यह सच है कि लालू के जन उनकी जाति है। सवाल जनाधार नहीं इसी जातीय आधार का है। मनुवादी या मीडिया ट्रायल में यह साफ़ दिखता है कि लालू तमाम अंतर्विरोधों के बीच जातीय अस्मिता के प्रतीक पुरुष बने हुए हैं। डरा सहमा मुस्लिम समाज आज भी लालू में ही आस्था रखता है। लालू की लाठी को संघ की लाठी तोड़ नहीं पायी है। मुसलमानों को यह भरोसा है कि लालू ही मोदी की लगाम थाम संकेंगें। मुसलमान और यादवों के सामने लालू ही शेष विकल्प हैं। यद्यपि इस जनाधार में सेंध लगाने की फुटकर कोशिशें भी हो रही हैं बावजूद माय समीकरण के सामने ‘जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है’ की नृत्य-नाटिका चल रही है।
2015 के चुनाव में 18।4 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 101 सीटों पर 44।4 प्रतिशत मत राजद को प्राप्त हुआ। भाजपा ने लोकसभा चुनाव में बिहार की 31सीट झपट ली थी जब दोनों दल अलग अलग चुनाव लड़े थे। नीतीश के पास क्या है? नीतीश भाजपा में जाकर क्या करेंगे। नीतीश को पसमांदा और महादलित पर भरोसा है पर यह भरोसा वोट में भी तब्दील होगा यह कहना कठिन है। क्या नीतीश उप-प्रधानमंत्री बनेंगे। अगर इस पर कोई डील हो रही हो तो वह नीतीश ही बतायेंगें। नीतीश को लगातार करीबी बताना भी एक साजिश है। भाजपा चाहती है कि बिहार का मुसलमान कन्फ्यूज्ड बना रहे नीतीश आये या ना आये इस पर भी भाजपा को विशेष मलाल नहीं है। इस जोड़ी का टूटना ही भाजपा की जीत है। भाजपा की सरकार बनाने में उतनी दिलचस्पी नहीं है जितनी दिलचस्पी गठबंधन को तोड़ने में है। भाजपा नीतीश की वह सौतेली मां है जो सौत-पुत्रों को तंग-तबाह किये बिना गोद में पालकर मार डालती है। राजग के सहयोगियों की दुर्दशा को आसानी से समझा जा सकता है। सुशासन बाबु कह-कह कर नीतीश को गाईड फिल्म का देवानंद बना दिया जा रहा है। नीतीश को पता है कि अफवाहों को सूचना बना देने का कौशल केवल संघ के पास है। संघ किसी को भी महान और घटिया बना सकता है। सामाजिक-न्याय के सवालों को लेकर नीतीश आगे बढ़ते हैं तो सुशासन बाबू का तमगा कभी भी छिन सकता है।
नीतीश को भीष्म की तरह अपनी झूठी प्रतिज्ञा बचाने में रजस्वला द्रोपदी का चीरहरण देखना पसंद है या फिर गांडीव भी उठायेंगें। नीतीश भाजपा जैसी पवित्र पार्टी से नाता तोड़कर जब लालू के पास आये थे तो उन्हें पता ही था कि वे आरोपी के साथ जा रहे हैं। लालू ने नीतीश को राजतिलक दिया। अगर नीतीश इस कथित अधर्म के साथ हैं तो इन्हें कर्ण की तरह कवच-कुंडल तक दान कर देना चाहिए। नीतीश की किसी कृतघ्नता को बिहार शायद ही माफ़ करे। कर्ण अपनी कृतज्ञता को लेकर ख्यात है। नीतीश फिर क्यों कुख्यात होना चाहते हैं। नीतीश जो कुछ कर रहे हैं वह पाखंड ही है। लालू भ्रष्ट हैं तो हैं। गणिका की तरह लालू सत्य के साथ खड़े हैं और सत्य को अपने पक्ष में करने के लिए तर्क की तलाश नहीं कर रहे हैं। नीतीश तो कालगर्ल की तरह सत्य के साथ होने के बजाय सत्य को अपने पक्ष में करने में लगे हैं। जहाँ सत्य है वहीं शिव है और वही सुन्दर है। नीतीश सुशासन बाबु नहीं, एक पाखंड बाबु हैं। भाजपा के लिए लालू राजनीति के बदनुमा दाग हैं। पर कुछ दाग अच्छे होते हैं। लालू का प्रश्न ऑब्जेक्टिव नहीं सब्जेक्टिव है। आप ऑब्जेक्टिव उत्तर बटोर कर मुग्ध मत होईये। आगे आगे देखिये होता है क्या…
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