मुंबई समेत देश के कई हिस्सों में गुरुवार से 11 दिन के गणपति पूजा उत्सव की शुरुआत हो रही है। कुछ वर्ष पहले तक जहां सिर्फ प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी गणपति जी की प्रतिमाएं उपयोग की जाती थीं, अब आम लोगों का मन की रुझान मिट्टी की मूर्तियों की ओर तेजी से बढ़ा है। ईकोफ्रेंडली यानी पर्यावरण कल्याण मिट्टी से बनीं प्रतिमाओं की मांग बढ़ गई है।
गणपति मूर्ति निर्माण का क़िला माने जाने वाले महाराष्ट्र के रायगढ़ स्थित पेण कस्बे से लेकर, महाराष्ट्र की कुछ जेलों और मुंबई तक में मिट्टी के गणपति बनाए जा रहे हैं और बहुत बिक रहे हैं। मुंबई के हीरानंदानी स्थित सुरीति कल्चर शॉप ने 2006 से ही मिट्टी की मूर्तियों के प्रति जागरूकता अभियान शुरू कर दिया था। पहले साल उसके यहां से सिर्फ 20 मूर्तियां बिकी थीं। इस वर्ष ईकोफ्रेंडली 1200 मूर्तियां लोगों के घरों में जा चुकी हैं। मांग तो और भी है, लेकिन जब तक पहले से ऑर्डर न दिया जाए, मूर्ति दे पाना संभव नहीं होता।
सुरीति के सह प्रबंधक संदीप उदामले बताते हैं कि उनका स्टोर कई कारीगरों से महीनों पहले ऑर्डर देकर दो इंच से तीन फुट तक ऊंची गणपति मूर्तियां बनवाना शुरू कर देता है। 1इन मूर्तियों में कर्नाटक की नदी से आई मिट्टी का उपयोग होता है। इस वर्ष तो गाय के गोबर और कागज की लुगदी से भी गणोश मूर्तियां बनाई गई हैं। रंगाई के लिए रासायनिक रंगों के बजाय हल्दी, गेरू और मुल्तानी मिट्टी का उपयोग किया जाता है। ये रंग विसर्जन के समय पानी को नुकसान नहीं पहुंचाते। मिट्टी की ये मूर्तियां बनाने का काम सामान्य कारीगरों के अलावा महाराष्ट्र की कुछ जेलों में कैदियों द्वारा भी किया जा रहा है।
अमरावती की मोरशी ओपेन जेल और नासिक सेंट्रल जेल में तो कलात्मक रुचि के कई कैदी मिट्टी की गणेश मूर्तियां बनाकर न सिर्फ पर्यावरण प्रेमी श्रद्धालुओं की मांग पूरी कर रहे हैं, बल्कि अपनी आमदनी भी कर रहे हैं। मोरशी जेल के कैदी सुदीप पॉल और नासिक जेल के सागर पवार की कलात्मक ख्याति तो जेल की दीवारों के पार भी पहुंच चुकी है।
सामाजिक संगठन भी लोगों से मिट्टी की मूर्तियां बैठाने की अपील करने में पीछे नहीं हैं। संवेदना फाउंडेशन के अध्यक्ष पंकज मिश्र पिछले कई वषों से लोगों को मिट्टी की मूर्तियां स्थापित करने और प्लास्टिक तथा थर्मोकोल का उपयोग न करने के लिए प्रेरित करते आ रहे हैं। मिश्र के अनुसार अब इस अपील का असर भी दिखाई देने लगा है।
संदीप उदामले के अनुसार श्रद्धालु भी जागरूक हो रहे हैं। वे भी आकार में अपेक्षाकृत छोटी इन मूर्तियों का विसर्जन नदियों और समुद्र में करने के बजाय टब या कृत्रिम तालाबों में करते हैं। फिर ये पानी बगीचों में सिंचाई के काम आ जाता है और आस्था पुष्प बनकर मुस्कराती नजर आती है। लेकिन बात तो तब बनेगी, जब यह जागरूकता सार्वजनिक गणोशोत्सव मनानेवाले पंडालों तक पहुंचे, जहां बड़ी-बड़ी मूर्तियों का उपयोग किया जाता है।