प्रथम अध्याय : पहले अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। जब शौर्य और धैर्य, साहस और बल इन चारों गुणों से युक्त अर्जुन पर क्षमा आैर प्रज्ञा यानि बुद्घि का प्रभाव बढ़ा आैर उन्होंने युद्घ भूमि में हथियार डाल दिए तब उनके क्षात्रधर्म का स्थान कार्पण्य ने लिया। तब कृष्ण ने तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म की चर्चा से, विश्व के स्वभाव से, उसमें जीवन की स्थिति से, दोनों के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन को वापस प्रेरित किया। इस अध्याय में इसी तत्वचर्चा परिचय दिया गया।
दूसरा अध्याय : इस अध्याया का नाम सांख्ययोग है। इसमें जीवन की दो प्राचीन संमानित परंपराओं का तर्कों द्वारा वर्णन आया है। अर्जुन को उस कृपण स्थिति में रोते देखकर कृष्ण ने उसका ध्यान दिलाया है कि इस प्रकार का क्लैव्य और हृदय की क्षुद्र दुर्बलता अर्जुन जैसे वीर के लिए उचित नहीं। उन्होंने बताया कि प्रज्ञादर्शन काल, कर्म और स्वभाव से होनेवाले संसार की सब घटनाओं और स्थितियों को अनिवार्य रूप से स्वीकार करता है। जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना, सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं।
तीसरा अध्याय : इस अध्याय में अर्जुन ने इस विषय में और गहरा उतरने के लिए स्पष्ट प्रश्न किया कि सांख्य और योग इन दोनों मार्गों में आप किसे अच्छा समझते हैं और क्यों नहीं यह निश्चित बतसते कि वे इन दोनों में से किसे अपनायें। इसपर कृष्ण ने स्पष्टता से उत्तर दिया कि लोक में दो निष्ठायें या जीवनदृष्टियां हैं। सांख्यवादियों के लिए ज्ञानयोग है और कर्ममार्गियों के लिए कर्मयोग है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं, क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते, और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक जायेंगे।
चौथा अध्याय : इस अध्याय में, जिसका नाम ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग है, यह बताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस तरह से प्राप्त किया जा सकता है। यहीं गीता का वह प्रसिद्ध वचन है कि जब जब धर्म की हानि होती है तब तब भगवान का अवतार होता है।
पांचवां अध्याय : 05वें अध्याय कर्मसंन्यास योग नामक युक्तियां फिर से और दृढ़ रूप में कहीं गई हैं। इसमें कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। यह भी कहा गया है कि एक स्थान पर पहुँचकर सांख्य और योग में कोई भेद नहीं रह जाता है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता।
छठा अध्याय : 06वें अध्याय आत्मसंयम योग है जिसका विषय नाम से ही पता चलता है कि जितने विषय हैं उन सबमें इंद्रियों का संयम श्रेष्ठ है। सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहते हैं।
सातवां अध्याय : 07वें अध्याय की संज्ञा ज्ञानविज्ञान योग है। विज्ञान की दृष्टि से अपरा और परा प्रकृति के इन दो रूपों की व्याख्या गीता ने दी है। अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं, पंचभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें ईश्वर की चेष्टा के संपर्क से जो चेतना आती है उसे परा प्रकृति कहते हैं, वही जीव है। आठ तत्वों के साथ मिलकर जीवन नवां तत्व हो जाता है। इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है।
आठवां अध्याय : इस अध्याय की संज्ञा अक्षर ब्रह्मयोग है। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ आैर गीता में उसे अक्षरविद्या का सार कह दिया गया है। अक्षर ब्रह्म परमं, मनुष्य, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। गीता के शब्दों में ॐ एकाक्षर ब्रह्म है।
नवां अध्याय : 09वें अध्याय को राजगुह्ययोग कहा गया है, अर्थात् यह अध्यात्म विद्या और गुह्य ज्ञान सबमें श्रेष्ठ है। मन की दिव्य शक्तियों को किस प्रकार ब्रह्ममय बनाया जाय, इसकी युक्ति ही राजविद्या है। इस क्षेत्र में ब्रह्मतत्व का निरूपण ही प्रधान है। वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, और मृत्यु, संत और असंत, और जितने भी देवी देवता है, सबका पर्यवसान ब्रह्म में है।
दसवां अध्याय : इस अध्याय का नाम विभूतियोग है। इसका सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान का अंश हैं। मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। देवताआें की सत्ता को स्वीकारते हुए सबको विष्णु का रूप मानकर समन्वय की एक नई दृष्टि प्रदान की गर्इ है जिसका नाम विभूतियोग है।
ग्याहरवां अध्याय : 11वें अध्याय का नाम विश्वरूपदर्शन योग है। इसमें अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप देखा। विराट रूप का अर्थ है मानवीय धरातल और परिधि के ऊपर जो अनंत विश्व का प्राणवंत रचनाविधान है, उसका साक्षात दर्शन।
बारहवां अध्याय : जब अर्जुन ने भगवान का विराट रूप देखा तो वह घबरा गया आैर घबराहट में उसके मुंह से ‘दिशो न जाने न लभे च शर्म’ वाक्य निकले। उसने प्रार्थना की, कि मानव के लिए जो स्वाभाविक स्थिति ईश्वर ने रखी है, वही पर्याप्त है।
तेहरवां अध्याय : 13वें अध्याय में एक सीधा विषय क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार है। यह शरीर क्षेत्र है, उसका जाननेवाला जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है।
चौदहवां अध्याय : इस अध्याय का नाम गुणत्रय विभाग योग है। यह विषय समस्त वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक तत्वचिंतन का निचोड़ है। -सत्व, रज, तम नामक तीन गुण हैं। अकेला सत्व शांत रहता है और अकेला तम भी निश्चेष्ट रहता है, किंतु दोनों के बीच में रजोगुण उन्हें सक्रिय करता है।
पंद्रहवां अध्याय : 15वें अध्याय का नाम पुरुषोत्तमयोग है। इसमें विश्व का अश्वत्थ के रूप में वर्णन किया गया है। नर या पुरुष तीन हैं, क्षर, अक्षर और अव्यय। इनमें पंचभूत क्षर है, प्राण अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है।
सोलहवां अध्याय : 16वें अध्याय में देवासुर संपत्ति का विभाग बताया गया है। आरंभ से ही ऋग्देव में सृष्टि की कल्पना दैवी और आसुरी शक्तियों के रूप में की गई है। एक अच्छा और दूसरा बुरा।
सत्हरवां अध्याय : ये अध्याय श्रद्धात्रय विभाग योग है। इसका संबंध सत, रज और तम, इन तीनों गुणों से है, अर्थात् जिसमें जिस गुण का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। यज्ञ, तप, दान, कर्म ये सब इसी से संचालित होते हैं।
अठ्ठहारवां अध्याय : 18वें अध्याय में मोक्षसंन्यास योग का जिक्र है। इसमें गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। इसमें बताया गया है कि पृथ्वी के मानवों में और स्वर्ग के देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं जो प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से बचा हो। मनुष्य को क्या कार्य है, क्या अकार्य है, इसकी पहचान होनी चाहिए। धर्म और अधर्म को, बंध और मोक्ष को, वृत्ति और निवृत्ति को जो बुद्धि ठीक से पहचनाती है, वही सात्विक बुद्धि है।