इस्लाम के जानकारों के अनुसार हज़रत इब्राहिम अपने पुत्र हज़रत इस्माइल को इसी दिन खुदा के हुक्म पर उनकी राह में कुर्बान करने जा रहे थे, आैर खुश हो कर उन्होंने बच्चे को जीवनदान दे दिया। तभी से इस महान त्याग आैर उसके परिणाम की याद में यह पर्व मनाया जाता है। खास बात ये है कि इसका बकरों से कोई संबंध नहीं है आैर न ही यह उर्दू का शब्द है। असल में अरबी में ‘बक़र’ का अर्थ है बड़ा जानवर जो जि़बह किया यानि काटा जाता है। यही शब्द कालांतर में बदलते हुए भारत, पाकिस्तान व बांग्ला देश में बकरा ईद बन गया। ये एक अरबी भाषा का लव्ज है ईद-ए-कुर्बां आैर इसका मतलब है बलिदान की भावना। इस अवसर पर दी जाने वाली कुर्बानी वो है जो हज के महीने में खुदा को खुश करने के लिए की जाती है। विद्घानों के अनुसार कुरान में बताया गया है कि हमने तुम्हें हौज़-ए-क़ौसा दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज़ पढ़ो और कुर्बानी करो।
ईद उल अजहा का त्योहार हिजरी के आखिरी महीने जुल हिज्ज में मनाया जाता है। इसी महीने में दुनिया भर से इस्लाम को मानने वाले सऊदी अरब के मक्का में एकत्रित होकर हज पूरा करते है। ईद उल अजहा का शाब्दिक अर्थ त्याग वाली ईद है इस दिन जानवर की कुर्बानी देना एक प्रकार की प्रतीकात्मक कुर्बानी है। हज और उसके साथ जुड़ी हुई कहानी हजरत इब्राहीम और उनके परिवार के कार्यो को प्रतीकात्मक तौर पर दोहराने का नाम है।
बताते हैं कि हजरत इब्राहीम के परिवार में उनकी पत्नी हाजरा और पुत्र इस्माइल थे। एक बार हजरत इब्राहीम ने एक सपने में देखा कि वह खुदा की राह में अपने पुत्र इस्माइल की कुर्बानी दे रहे थे। इस सपने को देखने के बाद हजरत इब्राहीम अपने दस साल के बेटे इस्माइल को कुर्बान करने के लिए तैयार हो गए। पुरानी इसलामिक कथाआें के अनुसार जब वो इस्माइल को कुर्बान करने लगे तो पुत्र मोह में हाथ बहक ना जाये इसलिए उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं। जब आंख खुली तो उन्होंने देखा कि उनका पुत्र सुरक्षित है आैर खुदा ने उसकी जगह एक बड़े जानवर की कुर्बानी स्वीकार कर ली। तब से इस दिन अपनी सबसे प्रिय चीज को कुर्बान करने की परंपरा शुरू हुर्इ।