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दुखवा कासे कहूँ

मुजफ्फरपुर / ब्रह्मानंद ठाकुर : दिन के सवा एक बजे हैं। जिले की पूर्वी सीमा पर स्थित बंदरा प्रखंड कार्यालय पर विभिन्न कार्यों से आए हुए आम जनता की भीड़। इसमें कुछ लोग विकलांगता  प्रमाणपत्र बनवाने आए हैं तो कुछ आरटीपीएस काउंटर पर राशनकार्ड के लिए आवेदन करने। विकलांगता शिविर में डॉक्टर के अबतक न पहुंचने से विकलांगों में आक्रोश है। आरटीपीएस काउंटर के पास महिलाओं की लम्बी लाईन लगी हुई है।  कोई अपनी गोद में छोटे बच्चे को संभाले तो किसी की सास, ननद या देवर बच्चे को संभाले हुए। गिनता हूं तो  यह संख्या 87 पर जा पहुंचती है। काउंटर के बाहर लाईन ठीक से लगाने के लिए बांस बल्ला का लगा होना पंचायत चुनाव में नामांकन दाखिल करने वाले दृश्य की याद ताजा करा देता है।

मगर नहीं, यह बांस बल्ला आरटीपीएस काउंटर पर राशन कार्ड, आवासीय और जाति प्रमाणपत्र बनवाने आने वाली महिलाओं को पंक्तिबद्ध खड़ा रहने के लिए लगाया गया है। लाईन के बाहर एक प्रौढ़ गार्ड चहलकदमी कर रहा है। उसका नाम रामकृपाल सिंह है। अभी 15 दिन पहले पुलिस लाईन से यहां प्रतिनियोजित हुआ है।  प्रखंड में गार्ड अक्सर कुछ दिनो के लिए ही प्रतिनियोजित होते हैं। उनकी टीम बदलती रहती है।

मैं रामकृपाल जी से मुखातिब होता हूं। उनसे मैं कुछ सवाल करूं इससे पहले उनकी पारखी आंखें मेरी जिज्ञासा भांप लेती हैं। बोलते हैं, क्या बताऊं, आरटीपीएस काउन्टर तो खुलता है 11  बजे लेकिन आवेदिकाओं का तांता सुबह से ही लगने लगता है। कुछ लोग तो रात में एक और दो बजे ही आ जाते हैं ताकि पहले लाईन में लगकर अपना आवेदन जमा कर फुर्सत पा लें।

मैं  गोद में बच्चा थामे, हाथ में आवेदन और जरूरी कागजात लिए या पालिथीन का बैग लटकाए लाईन मे खड़ी महिलाओं की गिनती करता हूं। कुल 87  महिलाएं लाईन में खड़ी होकर अपनी बारी का इंतजार कर रही हैं। ठीक उसी तरह जैसे पिछले साल नोटबंदी के बाद बैंक काउंटर और एटीएम पर लाईन लगा कर लोग अपनी बारी का  इंतजार करते थे। मेरे मन में एक सवाल उठता है, नोटबंदी वाली वह लाईन तो खत्म हुई लेकिन यह लाईन? इसी बीच एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज सुनाई पड़ती है। पीछे मुड़ कर देखता हूं। वृत्ताकार रूप में 5-6 महिलाएं बैठी हुई हैं। किसी की गोद में नन्हा शिशु दूध पी रहा है तो किसी का बच्चा जमीन पर बिछाए गये कथरीया शॉल पर लेटकर खेल रहा है। इसी में एक बच्चा शायद भूख से रोने लगा जिसने मेरा ध्यान आकर्षित किया था।

एक महिला से उसका परिचय पूछता हूँ। वह अपना नाम सविता देवी और घर केवटसा (प्रखंड मुख्यालय से करीब 8-10 किमी दूर) बताती है। अहले सुबह यहां आई थी लेकिन अभी तक उसकी बारी नहीं आई है। वह लाईन में जिस जगह खड़ी थी, वह जगह दूसरे की निगरानी में सुरक्षित रख कर बच्चे को दूध पिलाने लाईन से बाहर निकली है। उसी की बगल में एक प्रौढ़ा अपने पोते को गोद में लिए बैठी है। उसका नाम जमीला खातुन है।

वह बगल के छपड़ा गांव की है। उसकी बहू लाईन मे खड़ी अपनी बारी का इंतजार कर रही है। यह कहानी केवल सविता, सीता और जमीला की ही नहीं ऐसी अनेक महिलाएं यहां हैं जो तीन-तीन, चार-चार दिनों से यहां आकर निराश लौट रही हैं। लाईन घटने की बजाय बढ़ती जा रही है। मैं काउंटर के अंदर आवेदन लेने की प्रक्रिया का सूक्ष्म अवलोकन करता हूं।

यहां दो काउंटर हैं। एक पर राशनकार्ड और दूसरे पर आवासीय वगैरह का आवेदन स्वीकार किया जाता है। आधार कार्ड समेत अन्य वांछित कागजातों की जांच करने में 5 से 7 मिनट लगते हैं। यानि एक घंटा में 10 से 12 आवेदकों का ही निष्पादन हो पाता है। 11 बजे से 3 बजे तक ही काउंटर पर आवेदन लिया जाता है। मतलब 4 घंटा। इस अवधि मे अधिकतम 50 आवेदनों का निष्पादन। लाईन में 87 महिलाएं है। 37 तो बच ही जाएंगे। उन्हें निराश लौटना होगा, फिर कल लाईन में लगने के लिए आना होगा। नियम है कि राशनकार्ड महिलाओं के नाम ही बनना है, चाहे जब भी बने। लिहाजा इस काउंटर पर महिलाओं के ही आने की मजबूरी है।

यह स्थिति केवल बंदरा प्रखंड की ही नहीं है। जिले के सभी प्रखंडों मे कमोबेश यही स्थिति है। आरटीपीएस काउंटर पर महिलाओं की भीड़, धक्का-धुक्की, मार-पीट की घटनाएं और इस बीच दलालों का वर्चस्व आम बात हो गई है। ऐसा नहीं कि आरटीपीएस कर्मी अपने कर्तव्य के निर्वहन में कोताही कर रहे हैं। उनके सामने भी कार्य का अत्यधिक बोझ है। कार्य अवधि में प्राप्त आवेदनों का पंचायतवार स्क्रूटनी भी उन्हें करना होता है। इसके लिए अलग से कर्मी के प्रतिनियोजन की जरूरत महसूस की जा रही है।

आरटीपीएस कर्मी को शेष काम अपने आवास पर निबटाना होता है। इसी सिलसिले में पिछले दिनों मोतीपुर के आरटीपीएस कर्मी की मोटरसाइकिल, लैपटॉप और आवश्यक कागजात  बीच सड़क पर लुटेरों ने पिस्तौल दिखाकर लूट  ली। गनीमत रही कि बेचारे की जान बच गई। भले ही महिलाओं के नाम राशनकार्ड निर्गत करने के सरकारी फैसले को महिला सशक्तीकरण के अगले कदम के रूप में देखा जाए लेकिन इसके लिए ऐसी व्यवस्था तो होनी ही चाहिए जिससे महिलाओं की परेशानी कुछ कम हो सके। यदि पंचायतवार आवेदन लेने की तिथि निर्धारित कर दी जाए तो इसमें कुछ सहूलियत हो सकती है। वैसे जिले के तमाम आला अधिकारी इन दिनों मुख्यमंत्री के प्रस्तावित कार्यक्रम की तैयारी में जुटे हुए हैं। उन्हें फुर्सत कहां जो महिलाओं की परेशानी दूर करने की दिशा में कोई कारगर कदम उठाएं। बहरहाल महिलाओं को  अपने सशक्तीकरण के नाम पर ऐसी मुसीबतें झेलना उनकी मजबूरी है।

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