हिंदुस्तान की सियासत का एक अजातशत्रु, किसी कविता के प्रवाह का उदाहरण हैं अटल बिहारी वाजपेयी। हिंदुस्तानी सियासत पर एक कभी ना मिटने वाला दस्तखत, तो आज की राजनीति के उतार-चढ़ाव के बीच एक ठहराव भी। हिंदुस्तान की सियासत के कई दशकों का इतिहास इस चेहरे में सिमटा हुआ है। ज़ुबां के उस्ताद और भारत की राजनीति में एक कविता हैं अटल बिहारी वाजपेयी।
अटल बिहारी वाजपेयी यूं तो भारतीय राजनीतिक के पटल पर एक ऐसा नाम है, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व व कृतित्व से न केवल व्यापक स्वीकार्यता और सम्मान हासिल किया, बल्कि तमाम बाधाओं को पार करते हुए 90 के दशक में भाजपा को स्थापित करने में भी अहम भूमिका निभाई. यह वाजपेयी के व्यक्तित्व का ही कमाल था कि भाजपा के साथ उस समय नए सहयोगी दल जुड़ते गए। भारत की राष्ट्र भाषा हिंदी का अपना अलग ही महत्व और इतिहास है। अगर किसी ने हिंदी को प्रचारित और प्रसारित करने और इसके प्रति दुनिया का ध्यान आकर्षित करने का लिए सबसे ज्यादा काम किया है वो हैं देश के पूर्व प्रधानमंत्री और भाजपा के कद्दावर नेता अटल बिहारी वाजपेयी।
अटल जी को हिंदी भाषा से काफी लगाव है। इस लगाव का असर उस वक्त भी देखा जा सकता था जब 1977 में जनता सरकार में विदेश मंत्री के तौर पर काम कर रहे अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में अपना पहला भाषण हिंदी में देकर सभी के दिल में हिंदी भाषा का गहरा प्रभाव छोड़ दिया था। संयुक्त राष्ट्र में अटल बिहारी वाजपेयी का हिंदी में दिया भाषण उस वक्त काफी लोकप्रिय हुआ। यह पहला मौका था जब यूएन जैसे बड़े अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की गूंज सुनने को मिली थी।
अटल बिहारी वाजपेयी का यह भाषण यूएन में आए सभी प्रतिनिधियों को इतना पसंद आया कि उन्होंने खड़े होकर अटल जी के लिए तालियां बजाई। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का संदेश देते अपने भाषण में उन्होंने मूलभूत मानव अधिकारों के साथ- साथ रंगभेद जैसे गंभीर मुद्दों का जिक्र किया था। अटल जी ने जो भाषण दिया था उससे यह साफ पता लगाया जा सकता है कि उन्होंने हिंदी भाषा को अपने दिल के कितने करीब रखा हुआ है। एक बेहतरीन नेता होने के बावजूद भी अटल जी एक अच्छी कविताएं भी लिखा करते हैं। जो लोग आज भी पढ़ना या सुनना पसंद करते है।
25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म हुआ। अटल के पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी और मां कृष्णा देवी हैं। वाजपेयी का संसदीय अनुभव पांच दशकों से भी अधिक का विस्तार लिए हुए है।
वह पहली बार 1957 में संसद सदस्य चुने गए थे। साल 1950 के दशक की शुरुआत में आरएसएस की पत्रिका को चलाने के लिए वाजपेयी ने कानून की पढ़ाई बीच में छोड़ दी। बाद में उन्होंने आरएसएस में अपनी राजनीतिक जड़ें जमाईं और बीजेपी की उदारवादी आवाज बनकर उभरे। राजनीति में वाजपेयी की शुरुआत 1942-45 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में हुई थी। उन्होंने कम्युनिस्ट के रूप में शुरुआत की, लेकिन हिंदुत्व का झंडा बुलंद करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सदस्यता के लिए साम्यवाद को छोड़ दिया। संघ को भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी माना जाता है।
ब्रिटिश औपनिवेशक शासन का विरोध करने के लिए किशोरावस्था में वाजपेयी कुछ समय के लिए जेल गए लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने कोई मुख्य भूमिका अदा नहीं की। हिंदू राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और जनसंघ का साथ पकड़ने से पहले वाजपेयी कुछ समय तक साम्यवाद के संपर्क में भी आए। बाद में दक्षिणपंथी संगठनों से जुड़ाव के बाद जनसंघ और इसके बाद बीजेपी के साथ उनके घनिष्ठ संबंधों की शुरुआत हुई।
अटल बिहारी वाजपेयी 1951 से भारतीय राजनीति का हिस्सा बने। उन्होंने 1955 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा था लेकिन हार गए। इसके बाद 1957 में वह सासंद बनें। अटल बिहारी वाजपेयी कुल 10 बार लोकसभा के सांसद रहे। वहीं वह दो बार 1962 और 1986 में राज्यसभा के सांसद भी रहें। इस दौरान अटल ने उत्तर प्रदेश, नई दिल्ली और मध्य प्रदेश से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीते। वहीं वह गुजरात से राज्यसभा पहुंचे थे।
अपनी भाषणकला, मनमोहक मुस्कान, वाणी के ओज, लेखन व विचारधारा के प्रति निष्ठा तथा ठोस फैसले लेने के लिए विख्यात वाजपेयी को भारत व पाकिस्तान के मतभेदों को दूर करने की दिशा में प्रभावी पहल करने का श्रेय दिया जाता है। इन्हीं कदमों के कारण ही वह भाजपा के राष्ट्रवादी राजनीतिक एजेंडे से परे जाकर एक व्यापक फलक के राजनेता के रूप में जाने जाते हैं।
साल 1999 की वाजपेयी की पाकिस्तान यात्रा की उनकी ही पार्टी के कुछ नेताओं ने आलोचना की थी, लेकिन वह बस पर सवार होकर लाहौर पहुंचे। वाजपेयी की इस राजनयिक सफलता को भारत-पाक संबंधों में एक नए युग की शुरुआत की संज्ञा देकर सराहा गया। लेकिन इस दौरान पाकिस्तानी सेना ने गुपचुप अभियान के जरिए अपने सैनिकों की कारगिल में घुसपैठ कराई और इसके हुए संघर्ष में पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी।
भाजपा के चार दशक तक विपक्ष में रहने के बाद वाजपेयी 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन संख्याबल नहीं होने से उनकी सरकार महज 13 दिन में ही गिर गई। आंकड़ों ने एक बार फिर वाजपेयी के साथ लुका-छिपी का खेल खेला और स्थिर बहुमत नहीं होने के कारण 13 महीने बाद 1999 की शुरुआत में उनके नेतृत्व वाली दूसरी सरकार भी गिर गई। अन्नाद्रमुक प्रमुख जे जयललिता द्वारा केंद्र की भाजपा की अगुआई वाली गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेने की पृष्ठभूमि में वाजपेयी सरकार धराशायी हो गई। लेकिन 1999 के चुनाव में वाजपेयी पिछली बार के मुकाबले एक अधिक स्थिर गठबंधन सरकार के मुखिया बने, जिसने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। गठबंधन राजनीति की मजबूरी के कारण भाजपा को अपने मूल मुद्दों को पीछे रखना पड़ा।
11 और 13 मई 1998 को पोखरण में पांच भूमिगत परमाणु परीक्षण विस्फोट कर अटल बिहारी वाजपेयी ने सभी को चौंका दिया। यह भारत का दूसरा परमाणु परीक्षण था. इससे पहले 1974 में पोखरण 1 का परीक्षण किया गया था। दुनिया के कई संपन्न देशों के विरोध के बावजूद अटल सरकार ने इस परीक्षण को अंजाम दिया, जिसके बाद अमेरिका, कनाडा, जापान और यूरोपियन यूनियन समेत कई देशों ने भारत पर कई तरह की रोक भी लगा दी थी जिसके बावजूद अटल सरकार ने देश की जीडीपी में बढ़ोतरी की पोखरण का परीक्षण अटल बिहारी वाजपेयी के सबसे बड़े फैसलों में से एक है।
वह जब जनसभा या संसद में बोलने खड़े होते तो उनके समर्थक और विरोधी दोनों उन्हें सुनना पसंद करते थे। वाजपेयी अपने कवितामय भाषण से लोगों को अपना मुरीद बना लेते थे। राजनीति में संख्या बल का आंकड़ा सर्वोपरि होने से 1996 में उनकी सरकार गिर गई और उन्हें प्रधानमंत्री का पद त्यागना पड़ा। यह सरकार सिर्फ 13 दिन तक रही। बाद में उन्होंने प्रतिपक्ष की भूमिका निभायी। इसके बाद हुए चुनाव में वे दोबारा प्रधानमंत्री बने।