यंगून: पीएम नरेंद्र मोदी अपने म्यांमार दौरे के आखिरी दिन बागान और यंगून की यात्रा पर हैं। वह आज भारत के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की दरगाह पहुंचे। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी 2012 में बहादुर शाह जफर की दरगाह पर गए थे। बहादुर शाह जफर के दिल में एक कवि बसता था। वह उर्दू के मशहूर शायर थे। उनके दरबार में मोहम्मद गालिब शायरी करते थे। युद्ध के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा के रंगून (म्यांमार का यंगून) भेज दिया था। अंग्रेजों की कैद में रहते हुए भी उन्होंने ढेरों गजलें लिखीं। बतौर कैदी उन्हें कलम भी मुहैया नहीं करवाई जाती थी तो उन्होंने जली हुई तिल्लियों से दीवार पर गजलें लिखीं। लोगों के दिल में उनके लिए कितना सम्मान था उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिंदुस्तान में जहां कई जगह सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है, वहीं पाकिस्तान के लाहौर शहर में भी उनके नाम पर एक सड़क का नाम रखा गया है। बांग्लादेश के ओल्ड ढाका शहर स्थित विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह जफर पार्क कर दिया गया है।
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भारत के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की मौत 1862 में बर्मा में जो अब म्यांमार की राजधानी रंगून यानी यंगून की जेल में हुई थी। यह दरगाह उनकी मौत के 132 साल बाद 1994 में बनी। दरगाह में महिला और पुरुषों के लिए प्रार्थना करने की अलग-अलग जगह है। ब्रिटिश काल में दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले आखिरी शासक थे। वह अपनी कविताओं और गजलों के लिए भी जाने जाते थे। उनकी दरगाह दुनिया की मशहूर दरगाहों में से एक है।
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बहादुर शाह जफर की कलम सेपिता अकबर शाह द्वितीय की मौत के बाद वह गद्दी पर बैठे। अकबर शाह द्वितीय जफर को मुगल शासन नहीं सौंपना चाहते थे। क्योंकि वह हृदय से कवि थे। लेकिन जब 1857 में ब्रिटिशों ने तकरीबन पूरे भारत पर कब्जा जमा लिया था तो उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व किया। लड़ाई के शुरुआती परिणाम हिंदुस्तानी योद्धाओं के पक्ष में रहे, लेकिन बाद में अंग्रेजों के छल-कपट के चलते प्रथम स्वाधीनता संग्राम का रुख बदल गया और अंग्रेज बगावत को दबाने में कामयाब हो गए। बहादुर शाह जफर ने हुमायूं के मकबरे में शरण ली, लेकिन मेजर हडस ने उन्हें उनके बेटे मिर्जा मुगल और खिजर सुल्तान व पोते अबू बकर के साथ पकड़ लिया। देश से निर्वासित कर रंगून (आज यंगून) भेज दिया। बर्मा में अंग्रेजों की कैद में ही 7 नवंबर, 1862 को बहादुर शाह जफर की मौत हो गई। उन्हें उसी दिन जेल के पास ही श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफना दिया गया। पेड़ व बांसे कब्र को ढक दिया गया। उनके दफन स्थल को अब बहादुर शाह जफर दरगाह के नाम से जाना जाता है। जफर की मौत के 132 साल बाद साल 1991 में एक स्मारक कक्ष की आधारशिला रखने के लिए की गई खुदाई के दौरान एक भूमिगत कब्र का पता चला। 3.5 फुट की गहराई में बादशाह जफर की निशानी और अवशेष मिले जिसकी जांच के बाद यह पुष्टि हुई की वह जफर की ही हैं। सुनने में आता है कि बहादुरशाह जफर की मौत के बाद दिल्ली के महरौली में कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह के पास दफन होना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए दो गज जगह की भी निशानदेही कर रखी थी। उनकी कविताओं में दर्द साफ दिखाई देता है।
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,
किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में।
बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,
किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में।
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में।
एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।
दिन ज़िन्दगी खत्म हुए शाम हो गई,
फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में।
कितना है बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में