नई दिल्ली (जेएनएन)। मरीजों की भारी भीड़ व सर्जरी की लंबी प्रतीक्षा सूची के बावजूद एम्स पर मरीजों को भरोसा क्यों है, यह हृदय रोग के मरीज 13 वर्षीय बच्चे की कहानी से समझा जा सकता है। दिल्ली के तीन बड़े अस्पतालों के चक्कर काटने व कई डॉक्टरों से मिन्नतें करने के बाद माता-पिता उसे एम्स में भर्ती कराने में कामयाब हुए थे। एम्स के डॉक्टरों ने गरीब परिवार के इस बच्चे का हृदय प्रत्यारोपण कर नया जीवनदान दिया। उसके दवा के खर्च की भी व्यवस्था की। मरीज को पैसे का भुगतान नहीं करना पड़ा। जिस बच्चे का जीवन खतरे में था वह अब एम्स के डॉक्टरों की सलाह पर अपने बड़े भाई के साथ बैडमिंटन खेलता है।
सरिता ने बताया कि अगस्त 2015 में उनके बेटे के पेट में अचानक तेज दर्द हुआ और इसके बाद उल्टी शुरू हो गई। उसे नजदीक के अस्पताल में ले जाया गया, जहां से आरएमएल अस्पताल रेफर किया गया। वहां पता चला कि संक्रमण के कारण उसके हृदय में खराबी आ गई है। वह ठीक से सांस नहीं ले पा रहा था। धीरे-धीरे उसके शरीर में सूजन आने से बीमारी और बढ़ गई। कई दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहने के बावजूद स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। डॉक्टर उसे एम्स में भर्ती कराने की मौखिक सलाह दे रहे थे पर कोई उसे रेफर नहीं कर रहा था। किसी तरह वह बच्चे को लेकर एम्स की इमरजेंसी में पहुंची पर किसी अस्पताल से रेफर नहीं होने के कारण उसे भर्ती नहीं किया गया।
इसके बाद उसे सफदरजंग अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां के डॉक्टरों ने भी एम्स में ही इलाज उपलब्ध होने की बात कही पर उसे रेफर नहीं किया गया। बाद में मुख्यमंत्री कार्यालय के निर्देश पर चार महीने तक एक बड़े निजी अस्पताल में बच्चे को भर्ती रखा गया पर उसे कोई फायदा नहीं हुआ।
सरिता ने कहा कि एक दिन उसने निजी अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर से एम्स में रेफर करने के लिए आग्रह किया। वह डॉक्टर उसकी बात मान गए और एम्स में रेफर कर दिया। एम्स में भी इलाज के लिए धक्के खाने पड़े, लेकिन यहां उसका सही इलाज शुरू हुआ। 14 जुलाई 2016 को एम्स के डॉक्टरों ने बच्चे को हृदय प्रत्यारोपण किया। इसके लिए उन्हें एम्स को पैसे नहीं देने पड़े।
एम्स के डॉक्टरों की सिफारिश पर केंद्र सरकार ने उसकी सर्जरी व दवाओं के लिए संस्थान को पैसा भुगतान किया। पिछले दिनों यह बच्चा एम्स में फिर नियमित जांच कराने आया था। एम्स के कार्डियोलॉजी विभाग के प्रोफेसर डॉ. संदीप सेठ ने बताया कि संस्थान में अब तक 64 मरीजों का हृदय प्रत्यारोपण किया गया है। इसमें से चार से पांच बच्चे ही शामिल हैं। उन सभी बच्चों को सड़क हादसे के शिकार किसी बड़े ब्रेन डेड डोनर व्यक्ति का दिल ही प्रत्यारोपित किया गया है। इस बच्चे को भी उम्रदराज ब्रेन डेड डोनर से मिला हृदय प्रत्यारोपित किया गया है।
इस वजह से होती है परेशानी
प्रोफेसर डॉ. संदीप सेठ ने बताया कि बच्चों का हृदय छोटा होने के कारण उसके सीने में बड़े व्यक्ति का दिल प्रत्यारोपित करने के लिए पर्याप्त जगह नहीं होती है। इसलिए बच्चों में बड़े व्यक्ति का दिल प्रत्यारोपित करने में मुश्किल होती है।
हृदय की गंभीर बीमारी से पीड़ित इराक के तीन वर्षीय बच्चे के हृदय में फोर्टिस एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टीट्यूट के डॉक्टरों ने सर्जरी के बगैर सिंगल चैंबर का एक छोटा पेसमेकर लगाकर उसे नई जिंदगी दी। पेसमेकर लगाए जाने के बाद बच्चे का हृदय ठीक ढंग से काम करने लगा है और वह स्वस्थ है। मासूम हृदय की जन्मजात बीमारी से पीड़ित था। इस कारण उसके हृदय में छेद था और धमनियां सिकुड़ गई थीं।
मुंबई के अस्पताल में पहले उसके हृदय की ओपन हार्ट सर्जरी की गई थी, मगर सर्जरी के कुछ समय बाद उसका हृदय गंभीर रूप से ब्लॉक रहने लगा, जिससे हृदय की धमनियों में पैदा हुए इलेक्ट्रिकल इंपल्स वेंट्रिकल तक नहीं पहुंच पा रहे थे।
नतीजतन, बच्चे की धड़कन कम हो गई थी और हृदय से शरीर के अन्य हिस्सों में रक्त संचार प्रभावित हो रहा था। जब वह फोर्टिस अस्पताल में इलाज के लिए पहुंचा, तब उसका पल्स रेट 42 प्रति मिनट व ब्लड प्रेशर बहुत कम था। इसलिए वह बार-बार बेहोश हो जाता था। ऐसी स्थिति में उसके पेसमेकर लगाए जाने की जरूरत थी।
इसलिए कई अस्पतालों ने सर्जरी के जरिये पेसमेकर लगाने का सुझाव दिया था, जबकि इतनी कम उम्र के बच्चों में दोबारा सर्जरी कर पेसमेकर लगाना मुश्किल होता है, इसलिए उसके माता-पिता भी डरे हुए थे।
अस्पताल के पेडियाट्रिक कार्डियोलॉजी के निदेशक डॉ. राधा कृष्णन ने कहा कि बच्चे की स्थिति देखते हुए सर्जरी के बगैर उसे नसों के माध्यम से एक छोटा ट्रांसकैथेटर पेसमेकर लगाया गया। डॉक्टर कहते हैं कि यह पेसमेकर 12-14 सालों तक ठीक रहता है। उसके बाद बच्चे को दोबारा पेसमेकर लगाने की जरूरत पड़ सकती है।