बुधवार को केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति विधेयक, 2018 को मंजूरी दे दी है. इसके तहत 1989 के विधेयक में कुछ सुधार किये जाने हैं. यह सारा मामला 20 मार्च, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से जुड़ा है. जिसके बाद देशभर में खलबली मच गई थी. यह फैसला था अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) अधिनियम, 1989 (SC/ST Act, 1989) पर. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट के तहत अपने आप होने वाली गिरफ्तारियों पर रोक लगा दी थी. और FIR के बाद गिरफ्तारी से पहले प्राथमिक जांच का प्रावधान कर दिया था. SC ने यह भी कहा था कि अग्रिम जमानत पर कोई रोक नहीं होगी. इसके बाद देशभर में दलित समुदाय भड़क गये और आंदोलन होने लगे थे. दलित समुदायों का कहना था, ‘इस फैसले ने हाशिये पर रहे समुदायों की अपराध और भेदभाव से सुरक्षा के कानून को हल्का कर दिया है.’
इसके बाद कानून में बदलाव के विरोध में दलित समूहों ने 2 अप्रैल को एक देशव्यापी आंदोलन किया था. जिसमें तीन राज्यों के 12 लोगों की मौत हो गई. बीजेपी के भी सहयोगी, जिसमें लोक जनशक्ति पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) और जनता दल (यू) ने भी बिल में बदलावों के खिलाफ आवाज उठाने लगे थे. इतना ही नहीं बीजेपी के भी दलित नेताओं ने इसका विरोध शुरू कर दिया. इससे बीजेपी पर 1989 के असली कानून को फिर से लागू करने का दबाव बढ़ गया था. इसलिये पुरानी स्थिति लागू करने के लिये अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) विधेयक, 2018 में 1989 के असली विधेयक में कुछ सुधार किये गये हैं. और यह विधेयक को चल रहे मानसून सत्र में ही संसद के सामने रखने की तैयारी है ताकि इसे कानूनी रूप दिया जा सके.
हालांकि कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बिल में सुधारों से जुड़ी जानकारियां बताने से इंकार किया है. उनका कहना है कि मामला अभी संसद में विचाराधीन है, इसलिये इसकी जानकारी देना सही नहीं होगा. वहीं ग्राहक मामलों, खाद्य और जनवितरण के केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने इस फैसले की ट्विटर पर घोषणा की. और यह भी बताया कि जारी मानसून सत्र में ही बिल को सदन के पटल पर रखा जायेगा. बताते चलें कि रामविलास पासवान एक प्रमुख दलित नेता और लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष भी हैं. उन्होंने इसका एक पेज भी ट्वीट किया, जिसके अनुसार :
1. गिरफ्तारी के लिये किसी इजाजत की जरूरत नहीं होगी.
2. और अग्रिम गिरफ्तारी का कोई प्रावधान नहीं होगा.
3. पासवान ने एजेंसी IANS से यह भी कहा, हम आशा कर रहे हैं कि बिल आम सहमति से पास हो जायेगा. जो भी इसका विरोध करेगा उसे समझाने की कोशिश की जायेगी.
इससे यह समझ आता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को इस विधेयक के जरिए पलट दिया गया है. लेकिन यह कहना अभी सही नहीं है कि विधेयक के पास हो जाने पर पहले वाली स्थिति ही लागू हो जायेगी. क्योंकि नये विधेयक पर चर्चा के दौरान उसमें कई नई चीजों के जुड़ने की संभावना है.
1955 में ही संसद ने अछूत (अपराध) एक्ट पास किया था. 1976 में इसे प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स (PRC) एक्ट कर दिया गया. 1980 में जब यह कानून हाशिए के समुदायों के हितों की सुरक्षा के लिये पर्याप्त नहीं लगा तो इसमें कुछ प्रावधान जोड़कर इसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम), 1989 एक्ट बना दिया गया. 2015 में इस एक्ट को और मजबूत किया गया और सिर या मूंछें मुड़वा देने या प्रभावशाली जातियों के किसी भी तरह से हाशिये के समुदायों के सम्मान को चोट पहुंचाने को अपराध बना दिया गया.
लेकिन फिर भी इस कानून के अंदर दोषी करार दिये जाने की संभावनाएं कम ही रहीं. और नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो 2016 में यह मात्र 15.4 फीसदी थी. इस कानून के तहत 6 महीने की सजा से लेकर फांसी की सजा तक का प्रावधान है. यह कानून अपने आज के रूप में पहली बार 1989 में प्रभाव में आया था.
सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के फैसले
1. अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ SC/ST एक्ट के तहत शिकायत दर्ज कराई जायेगी तो प्राथमिक जांच 7 दिनों के अंदर पूरी कर ली जानी चाहिये.
2. सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि जांच बाकी होने की स्थिति में यह जरूरी नहीं है कि व्यक्ति को SC/ST एक्ट में गिरफ्तार किया जाये. जबकि इस मामले में FIR दर्ज कर ली गई हो.
3. अगर आरोपी कोई सरकारी कर्मचारी हो तो, पुलिस के लिये यह जरूरी है कि उससे बड़े अधिकारी से अनुमति ली जाये. अगर व्यक्ति सरकारी कर्मचारी न हो तो भी SC/ST एक्ट में गिरफ्तारी से पूर्व SSP से गिरफ्तारी के पूर्व अनुमति लेना जरूरी है.
4. सुप्रीम कोर्ट ने आगे चलकर SC/ST केस के मामलों में अग्रिम जमानत की अनुमति भी दे दी थी. हालांकि इससे पहले इस कानून की धारा 18 के तहत अग्रिम जमानत SC/ST एक्ट के तहत दर्ज केसों में अग्रिम जमानत की इजाजत नहीं थी.
5. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना फैसला देते हुये बॉम्बे हाइकोर्ट के इसके पहले के फैसले को पलट दिया था. जिसके खिलाफ कोर्ट ने कहा था कि यह फैसला जाति व्यवस्था को बनाये रखने के लिये नहीं बल्कि सारे समुदायों को करीब लाने और संविधान के मूल्यों के बनाए रखने के लिये था.
6. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि संसद ने SC/ST एक्ट इसलिये नहीं बनाया था कि इसे ब्लैकमेल या बदले के लिए इस्तेमाल किया जा सके.
7. जिन सरकारी कर्मचारियों का FIR में नाम था ने कहा था कि अगर एनुअल कांफिडेशियल रिपोर्ट (ACR) में की गई टिप्पणी पर SC/ST एक्ट के तहत केस कराने की अनुमति दे दी जायेगी तो यह असंभव हो जायेगा कि निचले पद पर काम करने वाले
8. सुप्रीम कोर्ट ने NCRB के 2015 के डाटा का हवाला दिया था. जिसमें कहा गया था कि SC/ST एक्ट में ही रजिस्टर कराए गये कुल मामलों में से 15 से 16 फीसदी प्राथमिक जांच के दौरान ही बंद कर दिये गये थे और कहा था कि पूरी जांच के बाद इस केस के कुल 75 फीसदी मामले ही कोर्ट तक पहुंच पाते हैं. इस दौरान या तो केस वापस ले लिये जाते हैं, या उनमें सुबूतों की कमी पाई जाती है या फिर केस को रद्द कर दिया जाता है.
BJP के सहयोगियों ने जस्टिस एके गोयल की नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष के तौर पर नियुक्ति को भी लेकर सवाल खड़े किए थे. एके गोयल उस तीन सदस्यीय बेंच के सदस्य थे, जिसने यह फैसला दिया था. उनका कहना था कि संसद भी इस कानून पर रोक नहीं लगा सकती. हमारा संविधान भी किसी व्यक्ति को बिना कारण गिरफ्तारी की इजाजत नहीं देता. यदि किसी शिकायत के आधार पर किसी व्यक्ति को जेल भेज दिया जाता है तो यह उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा.
इसके बाद SC/ST मसले पर केंद्र सरकार ने एक पुनर्विचार याचिका भी दायर की थी. और कई मंत्रियों ने यह आश्वासन भी दिया था कि वे इस कानून को कमजोर नहीं होने देंगे. जिसके बाद केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुये महान्यायवादी केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट के कई पुराने फैसलों का हवाला देते हुये कहा था कि संसद की ओर से बनाए गए कानून को अदालत नहीं बदल सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई, 2018 को अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) एक्ट पर अपने फैसले के संशोधन से इंकार कर दिया था.
केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा था कि संसद भी निर्धारित प्रक्रिया के बिना किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की इजाजत नहीं दे सकती है. अदालत ने अपने फैसले में सिर्फ निर्दोष लोगों के जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की रक्षा की है. जस्टिस आदर्श गोयल और उदय यू ललित की खंडपीठ ने यह भी टिप्पणी की थी कि अगर एकतरफा बयानों के आधार पर किसी नागरिक के सिर पर गिरफ्तारी की तलवार लटकी रहे तो समझिए कि हम सभ्य समाज में नहीं रह रहे हैं. अदालत का निर्देश आने के बाद दलित हितों की रक्षा को लेकर बहस शुरू हो गई थी.
पिछले हफ्ते, दलित समूहों ने सरकार के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को वापस न लिए जाने की शक्ल में एक देशव्यापी बंद का ऐलान अगस्त की 9 तारीख के लिए किया था. वहीं बीजेपी का कहना है कि उन्होंने दलितों के लिये कई सारी पहल की हैं. देश की कुल आबादी में दलितों की संख्या 16 फीसदी है. ऐले में बीजेपी चाहती है कि दलितों की समस्याओं से जुड़े और इस आरोप से बचे कि सरकार दलित विरोधी है.