राजनीति

क्या 2019 में विपक्ष एकजुट होकर मोदी को रोक पाएगा?

आम तौर पर उपचुनाव या स्थानीय चुनाव परिणाम को प्रधानमंत्री से जोड़कर नहीं देखा जाता, लेकिन जब प्रधानमंत्री हर छोटे-बड़े चुनाव में पार्टी का स्टार प्रचारक बन जाएं तो ऐसे में हार को उनकी छवि और गिरती साख से अलग कर पाना मुश्किल हो जाता है.

 

 

लोकसभा चुनावों की औपचारिक तैयारियों के लिए मात्र 8-10 माह का वक़्त बाकी बचा है. ऐसे में देश की चार लोकसभा सीटों में से तीन सीटें विपक्ष की झोली में जाने से भाजपा को गोरखपुर-फूलपुर उपचुनावोंं में पराजय के बाद यह लगातार दूसरा बड़ा झटका लगा है.

 

ख़ास तौर पर कैराना में निराशा के परिणाम से भाजपा की उत्तर प्रदेश की पूरी रणनीति को क़रारा झटका लगा है. भाजपा के लिए यह पराजय दुधारी तलवार है. फूलपुर व गोरखपुर हारने के बाद अब नए नतीजों ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का रुतबा कमज़ोर कर दिया.

 

किसान व जाट बहुल कैराना की हार भाजपा के लिए कई कारणों से बेहद कष्टकारी है. एक तो इससे 2014 के बाद 2017 में उत्तर प्रदेश फतह करने की मोदी लहर का जादू उतरने के साफ संकेत हैं. दूसरा यह कि भाजपा या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास हवा का रुख़ दोबारा अपनी ओर मोड़ने या तिकड़में भिड़ाने का वक़्त कम बचा है.

 

आम तौर पर उपचुनावों व राज्य की किसी हार को प्रधानमंत्री की पराजय नहीं मानी जाती. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी हर छोटे बड़े चुनाव में भाजपा के सर्वोच्च स्टार प्रचारक हैं तो हार के कारणों को उनकी छवि और गिरती साख से अलग कर पाना मुश्किल हो जाता है.

 

मोदी किसी उपचुनाव प्रचार करने से भले ही दूर रहे हों लेकिन चार बरस में हर प्रदेश में वोट उन्हीं के नाम से मांगे गए हैं.

 

दिल्ली से बमुश्किल 97 किमी. दूर बागपत इलाके से सटी कैराना लोकसभा सीट भाजपा के एक कद्दावर नेता हुकुम सिंह के निधन के कारण ख़ाली हुई थी.

 

2014 में एक चौथाई मुस्लिम आबादी के बावजूद उन्हें कुल वैध मतों का 52 प्रतिशत रिकॉर्ड वोट पड़ा था. इस बार उनकी बेटी मृगांका सिंह को भाजपा के पूरे धन व तिकड़मों के बावजूद मात्र 32 प्रतिशत वोट पड़ा. उसके वोट प्रतिशत में करीब 20 फीसदी गिरावट को पचा पाना भाजपा के लिए तगड़ा सबक है.

 

कैराना उपचुनाव से गोरखपुर व फूलपुर उपचुनाव में भाजपा को मिली क़रारी शिकस्त का बदला लेने की भाजपा की उम्मीदों पर पानी फिर गया.

 

विधानसभा की एक सीट की बात करें तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर की नूरपुर विधानसभा में भाजपा ने मात्र सवा साल पहले जीती सीट गंवा दी. इस सामान्य सीट से दिवंगत भाजपा विधायक लोकेंद्र सिंह चौहान की बहन अवनी सिंह मैदान में थीं.

 

कैराना व नूरपुर में एक समानता साफ़ थी कि भाजपा को सहानुभूति वोट के बजाय दूसरे ही मुद्दे और विपक्ष की एकता भारी पड़ गई. दूसरी समानता थी कि दोनों ही सीटों पर मुस्लिम वोटों की तादाद निर्णायक थी.

 

दोनों ही क्षेत्रों में बसपा, सपा व लोकदल का दलित, पिछड़ा, गुर्जर, जाट वोट बैंक एक हो गया. यह एकता आने वाले चुनावों के पहले टूटी नहीं तो भाजपा के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द समझो शुरू हो चुका है.

 

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मोहम्मद अली जिन्ना का चित्र हटाने की मुहिम चला भाजपा ने कैराना-नूरपुर में इस आड़ से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने की नाकाम कोशिश की. जिन्ना पर गन्ना हावी हो गया.

 

कैराना में चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का 13,000 करोड़ रुपये बकाया है. किसान इस बात से ख़ासे ख़फ़ा थे कि गन्ना बकाया दिलाने का वायदा करने के बावजूद भाजपा सवा साल से उन्हें लॉलीपॉप दिखाती रही.

 

दूसरी ओर बीफ पर पाबंदी और गोरक्षा के नाम पर भगवा ब्रिगेड की दहशत ने रमज़ान में रोज़े के बावजूद अल्पसंख्यकों को घरों से निकलने को प्रेरित किया. गोरक्षा मुहिम ने बड़ी तादाद में दलितों-मुस्लिम समुदाय की रोज़ीरोटी छीन ली.

 

अतीत से ही दिल्ली की राजनीति में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हलचलों का जबर्दस्त जादू रहा है. इस क्षेत्र में पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की किसान राजनीति का डंका बजता था. हालांकि 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर में जाट-मुस्लिम जातीय हिंसा ने मोदी लहर के लिए बड़ा मंच तैयार कर दिया.

 

इन्हीं कारणों से हाल के वर्षों में यहां की जाट राजनीति में बड़ा उलटफेर कर दिया. चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह की पार्टी रालोद का पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के उभार ने सूपड़ा ही साफ़ कर दिया. लेकिन अब कैराना में जीत ने अजित सिंह और उनके युवा पुत्र जयंत चौधरी के लिए अपनी राजनीतिक ज़मीन को दोबारा तराशने का एक और मौका दे दिया.

 

कैराना में भाजपा के ख़िलाफ़ बसपा, सपा व कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय लोकदल की उम्मीदवार तबस्सुम हसन की धमाके की जीत ने यह साबित कर दिखाया कि अगर यह महागठबंधन भरोसे के साथ आगामी लोकसभा चुनावों तक आगे बढ़ा तो भाजपा को लोकसभा में दोहरे अंक का आंकड़ा पार करना मुश्किल हो जाएगा.

 

यह देखना रोचक है कि उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर मुस्लिम महिला तबस्सुम 15 फीसदी मुसलिम समाज की अकेली सांसद हैं. हालांकि बसपा व सपा के बीच सीटों के तालमेल को लेकर शुरुआती विवाद बताता है कि उनमें सीटों पर आपसी समझ विकसित हो पाना बहुत ही टेढ़ा काम है.

 

बसपा प्रमुख मायावती सपा के साथ तालमेल में कई कठोर शर्तें रखना चाहती हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश में 80 में से 60 लोकसभा सीटों पर दावेदारी व ख़ुद को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव पर दबाव बनाना.

 

80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में अगर इतनी अधिक सीटें बसपा को सौंपी गईं तो फिर सपा, कांग्रेस व अजित सिंह के आरएलडी के लिए कितनी सीटें बच सकेंगी.

 

उत्तर प्रदेश की राजनीति को क़रीब से जानने वाले कई लोग मानते हैं कि अगर भाजपा विरोधी दलों में मज़बूत गठबंधन ने ज़मीन पर काम नहीं किया तो बहुकोणीय मुकाबले में भाजपा का लोकसभा में संख्याबल बढ़ने से नहीं रोका जा सकेगा.

 

मायावती व सपा के बीच कड़वाहट पिछले दिनों सार्वजनिक भी हो चुकी है, जब मायावती ने ऐलान किया कि यदि सीटों के बंटवारे में बसपा को सही हिस्सा नहीं मिला तो वह अकेले चुनाव लड़ने से नहीं हिचकेंगी.

 

बसपा ने प्रयोग के तौर पर कैराना व नूरपुर में आरएलडी व सपा को भले ही मूक समर्थन दिया हो लेकिन ज़मीनी रिपोर्ट बताती है कि इन दोनों ही चुनाव क्षेत्रों में बसपा कैडर को कोई दिशानिर्देश नहीं थे. मायावती दबाव बनाने की कला में सिद्धहस्त हैं. उनका पैंतरा आख़िर तक कुछ भी कर सकता है.

 

उत्तर प्रदेश चुनाव ही आगामी लोकसभा में केंद्र में सरकार बनाने की चाभी तैयार करेगा. भाजपा की प्रचंड जीत में भी उत्तर प्रदेश का ही सबसे बड़ा यानी 71 सीटों का योगदान था.

 

अगर भाजपा की सीटें 50 या उससे नीचे आतीं तो ज़ाहिर है कि मोदी सरकार को केंद्र में शिव सेना व छोटे-छोटे कई क्षेत्रीय दलों की मदद से सरकार बनानी पड़ती. लेकिन 272 के आंकडे़ के बजाय भाजपा अपने बूते ही 282 सीटें लेकर आ गई. दो दशक में पहली बार केंद्र में कोई एक पार्टी अपने बल पर पूर्ण समर्थन हासिल कर सकी.

 

कैराना चुनाव को हर कीमत पर जीतने के लिए भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी. उसने शुरू से ही इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया हुआ था. लेकिन खुफिया सूत्रों ने जब भाजपा आलाकमान का चुनाव के दो सप्ताह पहले जोखिम की जानकारी के साथ हार की आशंका जताई तो बताते हैं कि आनन-फानन में प्रधानमंत्री मोदी का दौरा कराने की रणनीति बनी.

 

पहले दिल्ली में यूपी गेट को जोड़ने वाले 9 किमी. हाईवे पर 6 किमी. रोड शो हुआ. चुनाव प्रचार पहले दिन बंद हो जाने के बावजूद मतदान के पहले कैराना के पड़ोस बागपत में मोदी की रैली करवाई गई.

 

यह समझना मुश्किल नहीं था कि पड़ोस में संवेदनशील इलाके में प्रधानमंत्री की प्रायोजित रैली के क्या निहितार्थ थे. राष्ट्रीय लोकदल, सपा, कांग्रेस व बसपा ने चुनाव आयोग में शिकायत करके प्रधानमंत्री के कार्यक्रम को चुनाव आचार सहिंता का उल्लंघन बताया.

 

भाजपा को कैराना की अहमियत पता थी. कम से कम दो बार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कैराना आए. उनके कई मंत्रियों और संघ की लंबी-चौड़ी फ़ौज उतारी गई. छह केंद्रीय मंत्री वहां कई-कई दिनों तक डेरा डालकर ख़ुद चुनावी संचालन में जुटे रहे. अल्पसंख्यक वोटर तो भाजपा से खिन्न थे ही, भाजपा का परंपरागत किसान, जाट व ब्राह्मण वोट बैंक भी उससे विमुख हो गया.

 

किसानों को 10-10 साल से गन्ना बकाए का भुगतान न होना एक बड़ा मुद्दा बना. इस चुनाव ने एक अच्छा काम यह किया कि हिंदू-मुस्लिम समुदाय ख़ासतौर पर जाट-मुसलिम एक साथ आ गए.

 

जाट जनाधार वाले राष्ट्रीय लोकदल ने एक मुस्लिम महिला को लोकसभा में पहुंचाकर नया सामाजिक सौहार्द का माहौल बनाने की पहल की. भाजपा की पढ़ी-लिखी युवा उम्मीदवार मृगांका सिंह को इस बात का ख़ासा मलाल है कि पिता की लंबी विरासत का वह अपने इस पहले चुनाव में फायदा नहीं ले सकीं.

 

 

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