राष्ट्रीय स्तर के एक चिकित्सा संस्थान का वजूद ख़त्म हो गया। कौन हैं इसके जिम्मेदार ? शिनाख्त कर रहे हैं हमारे विशेष संवाददाता धर्मेन्द्र प्रताप —-
पटना। राजधानी पटना की बढ़ती आबादी और विकलांग बच्चों के बढ़ते अनुपात को देखकर बहुत पहले राज्य सरकार ने कंकड़बाग इलाके में जयप्रभा अस्पताल के समीप विकलांग भवन की स्थापना की। यह साल 1966 की बात है। उस वक्त इसका नाम शिशु विकलांग केंद्र था। उन दिनों इसका संचालन भारतीय रेड क्रॉस सोसायटी के सौजन्य से हुआ करता था । फिर बाद के दिनों में जब विकलांग भवन की स्थापना की गई तो हड्डी रोग के ख्यातिप्राप्त चिकित्सक डॉ बी मुखोपाध्याय और एक अन्य चिकित्सक डॉ एसडी मिश्रा के प्रयास से 1969 में राज्य सरकार ने इसे स्वास्थ्य विभाग में स्थानांतरित कर दिया। इसके पूर्व विकलांग भवन के आउटडोर में मरीजों को देखा जाता था साथ ही। मरीजों का ऑपरेशन भी मुख्य भवन के प्रथम तल पर बने ऑपरेशन थियेटर में होता थ। जरुरतमंद मरीजों को यहीं पर कृत्रिम एवं अन्य उपकरण का निर्माण कर उन्हें निःशुल्क दिया जाता था । भोजन ,वस्त्र और और दवा की सुविधा थी।
विकलांग भवन का ओटी एक समय में देश के नामी गिरामी ऑपरेशन थियेटर के रूप में चर्चित था। डॉ बी मुखोपाध्याय के नेतृत्व में देश का पहला घुटना प्रत्यारोपण भी इसी विकलांग केंद्र में हुआ था। जिसमें डॉ मुखोपाध्याय के अलावा दो सर्जन बाहर से आए थे । तब से लेकर 1998 के माह जनवरी -फरवरी तक यह अपने लक्षित उद्देश्य की ओर निरंतरता के साथ बढ़ता रहा। लेकिन इसी बीच जब डॉ महावीर प्रसाद स्वास्थ्य मंत्री बने तो उन्होंने बगैर इसकी गुणवत्ता और उद्देश्य की जांच परख किए इस संस्था को ही ख़त्म कर दिया। इसके लिए उन्होंने विभाग के वरीय चिकित्सकों से न तो कोई सलाह मशविरा लिया और न तो कोई वजह ही बताई कि इसके अस्तित्व में बने रहने से उन्हें भला क्या एतराज हो सकता है।
बिहार गजट के ज्ञापांक -संख्या -102 (1) दिनांक 29 मार्च 1998 को शिशु विकलांग केंद्र भवन की जगह बिहार कॉलेज ऑफ फिजियोथेरेपी एवं ऑक्यूपेशनल थेरेपी की स्थापना हुई । फिजियोथेरेपी और ऑक्यूपेशनल थेरेपी दोनों के लिए अलग अलग विभागाध्यक्ष का प्रावधान किया गया। साथ में यह भी कि अपने क्षेत्र के सीनियर मोस्ट चिकित्सक ही विभागाध्यक्ष होंगे। मगर अफ़सोस कि अधिसूचना के अनुरूप कोई चिकित्सक यहां अबतक नहीं आए। बस लोग आते रहे और जाते रहे आया राम और गया राम की तरह। वरीयतम और वरिष्ठ, अनुभवी चिकित्सक भी आए तो विकलांग शिशु भवन में ही आए । उस दौर में डॉ बी मुखोपाध्याय , डॉ एसडी मिश्रा ,डॉ आरसी राम , डॉ एमएचआर रिजवी और डॉ यूके झा जैसे ख्यातिप्राप्त चिकित्सकों की तूती बोलती थी लेकिन अब तो यहां श्मशान की ख़ामोशी है। उनदिनों यहां नर्सें भी हुआ करती थी लेकिन पुराने कर्मियों की सेवानिवृत्ति के बाद नए सिरे से किसी की भर्ती ही नहीं हुई। अब तो मात्र एक पुराने स्टाफ रह गए हैं। हालांकि 35 अंतः शय्या की व्यवस्था बाहर में लगे बोर्ड पर दीखती तो है पर न तो वो व्यवस्था है और न तो वो इलाज।
कृत्रिम अवयव तो अब बनते ही नहीं जबकि पूर्व के दिनों में इसकी व्यवस्था थी। यहीं पर मानव अंगों का निर्माण होता था और उसे मरीजों में वितरित किया जाता था। आज भी कई ऐसे लोग हैं जिन्हें विकलांग भवन ने नई जिंदगी दी । डॉ दीपक मिश्रा के नेतृत्व में बने मानव अंग ने उन्हें एक नया जीवन दिया और वे भी अपनी मिहनत से इज्जत की जिंदगी जी रहे हैं | पर न तो अब दीपक मिश्रा हैं और न तो वो व्यवस्था जिसमें कृत्रिम मानव अंग बन सके। हां एक बात जो चौंकानेवाली है वो यह कि इस मद में दी जानेवाली राशि अभी भी विभाग से प्राप्त हो रही है पर वो खर्च कहां हो रही है यह जांच का विषय है।
यह तो महज एक संयोग है कि अभी तक यहां कोई हादसा नहीं हुई वरना नजारा कुछ और होता। किसी मरीज के साथ कोई हादसा हो जाय तो यहां एक पर्ची लिखनेवाला नहीं मिलेगा। पर्ची लिखवाना भी हो तो उसके लिए जयप्रभा अस्पताल जाना होगा। जयप्रभा नहीं तो पीएमसीएच जाइये। कितना कठिन कार्य है यह इस बात को कौन समझेगा ? एक बेबस , लाचार और मौत से जिंदगी की भीख मांगनेवाला वो मरीज पर्ची लिखवाने के लिए यहां से वहां की दौड़ लगायेगा या फिर रुक रुक कर चल रही अपनी सांस की खैरियत लेगा ? इस कथा का सबसे दुखद पहलू यह है कि जिस लोक कल्याण की भावना को लेकर डॉ मुखोपाध्याय और डॉ एसडी मिश्रा समेत कई वरिष्ठ चिकित्सकों ने इस अस्पताल की परिकल्पना की वह आज की तारीख में अतीत क्यों बन गया । वह बीती हुई बात क्यों बन गई । उन गरीब ,विकलांग और बेबस ,लाचार मरीजों का क्या होगा जिन्हें यहां से निशुल्क कृत्रिम अंग अथवा उपकरण मिलते थे । उनके पास तो इतने पैसे भी नहीं कि बाजारू दर पर वे उपकरण खरीद सकें और फिर उसकी गुणवत्ता की गारंटी भी कौन देगा कि इस बाजारू उपकरण में भी वही माद्दा है जो विकलांग भवन में निर्मित कृत्रिम अवयव में हुआ करता था ? न जाने अबतक कितने मंत्री और पदाधिकारी आए मगर अफ़सोस अबतक किसी ने इस मसले को गंभीरता से नहीं लिया ।