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आंग सान सू ची सत्ता में आते ही भूल गईं क्रांति!

रोहिंग्या मुसलमानों की हत्या और हिंसा पर रोक लगाने के लिए अब तक आर्कबिशप डेसमंड टूटू से लेकर मलाला यूसुफ़ज़ई तक- 12 नोबल पुरस्कार विजेता स्टेट काउंसलर और नोबल विजेता आंग सान सू ची से अपील कर चुके हैं। शांति की अपीलों को दरकिनार करते हुए पूरे मामले पर सू ची ने बड़े ही रहस्यमय ढंग से चुप्पी साध रखी है। इस मामले में वह अपने पिता आंग सान जैसा रवैया ही अपनाती दिख रही हैं जिन्होंने 1947 में पांगलॉन्ग वार्ता में रोहिंग्या प्रतिनिधियों को बुलाना ज़रूरी नहीं समझा था। यह सम्मेलन अलग-अलग जातीय समूहों को बर्मा के नए संघ में लाने के लिए था। दूसरे विश्व युद्ध के समय अराकान या रख़ाइन प्रांत दक्षिण पूर्व एशिया में चल रही लड़ाई के दौरान सबसे आगे था। रोहिंग्या समुदाय के लोगों ने ब्रिटेन और उसके सहयोगियों की तरफ़ से जापानी फ़ौजों को टक्कर दी। अराकान में बर्मी समुदाय और रख़ाइन के बौद्धों ने लड़ाई में जापान का साथ दिया। 1942-1943 के बीच दोनों तरफ़ से काफ़ी लोगों की जानें गईं। 1950 के दशक में कुछ समय के लिए रोहिंग्या समुदाय के लोगों को बर्मा का नागरिक मानने के समझौतों के लिए प्रयास किए जा रहे थे। तत्कालीन यू नु सरकार ने बर्मा में 144 जातीय समूहों की पहचान की। लेकिन जनरल नेविन ने बड़ी चतुराई से इनमें से कई समूहों को बाहर कर दिया और लिस्ट में सिर्फ़ 135 समूह बचे। इनमें रोहिंग्या का नाम भी हटा दिया गया था। 10 से 15 लाख आबादी वाले रोहिंग्या रख़ाइन प्रांत के क़रीब तीन उपनगरों मोंगडाव, बुथीडोंग और राथेडोंग में बसे हुए हैं।

‘रोहिंग्या’ शब्द ऐतिहासिक तौर पर मुस्लिम अराकनों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। अभी भी एक मुस्लिम गांव है जिसे अब सित्तवे शहर के नाम से जानते हैं। रख़ाइन प्रांत में स्थित इस गांव का नाम रोहांग था, जिससे रोहिंग्या आए। आज यह शब्द विवाद की जड़ बन चुका है। 19वीं सदी में रोहिंग्या मुसलमान बर्मा में रहने लगे और तब से वे बंगालियों, पारसियों, मुग़लों, तुर्कों और पठानों में मिलते गए। 1948 में रोहिंग्या पर कई क़ानून लागू नहीं होते थे जैसे विदेशी एक्ट (इंडियन एक्ट 3, 1846) रजिस्ट्रेशन ऑफ़ फ़ॉरेनर्स एक्ट (बर्मा एक्ट 7, 1940) और रजिस्ट्रेशन ऑफ़ फ़ॉरेनर्स रूल्स 1948। ये क़ानून बर्मा की आज़ादी से पहले और बाद में आने वाले विदेशियों के रजिस्ट्रेशन के लिए थे। राष्ट्रीय कोटे के तहत बर्मा का नागरिक मानते हुए रोहिंग्या प्रतिनिधियों को उत्तर अराकान से चुना गया। 1946 में जनरल आंग सान ने रोहिंग्या मुसलमानों को पूरे अधिकार दिए जाने और भेदभाव न होने का भरोसा दिया। लेकिन जल्द ही उन्हें पद से हटा दिया गया। सत्ता में आने के बाद 1962 में नेविन ने रोहिंग्या समुदाय के सामाजिक और राजनीतिक संगठनों को ध्वस्त कर दिया। 1977 में सेना ने सभी नागरिकों का रजिस्ट्रेशन किया और 1978 में 2 लाख से ज़्यादा रोहिंग्या मुसलमानों को बांग्लादेश में शरण लेनी पड़ी। 1700, 1800, 1940 और 1978 में बड़े स्तर पर रोहिंग्या मुसलमानों को अपना सबकुछ छोड़कर भागने के लिए मजबूर किया गया। इसके अलावा 1991 और 1992 के बाद 2012 में उन्हें निर्वासन भी झेलना पड़ा। चार बार खदेड़े जाने से यह तथ्य फिर साबित हो गया कि रोहिंग्या सदियों से बर्मा में ही रहते रहे हैं और बर्मा सरकार व बौद्ध बहुल आबादी के उस दावे को झूठा साबित करते हैं कि वे बांग्लादेश से आए शरणार्थी हैं। नॉर्वे की नोबेल कमिटी इस मामले में चुप्पी साधे है। अगर अंतरराष्ट्रीय कम्युनिटी गंभीर होती तो इस पर हाथ पर हाथ धरे रहने के बजाय सू ची और बर्मा की सेना दोनों के ख़िलाफ़ कड़े कदम उठाती।
ब्रिटेन से लेकर दूसरे लोकतांत्रिक देश बर्मा को सप्लाई किए जाने वाले हथियारों पर रोक लगा दें जिनका इस्तेमाल आम नागरिकों के ख़िलाफ़ किया जाता है। ब्रिटेन को तत्काल प्रभाव से वो सारी ट्रेनिंग रोक देनी चाहए जो बर्मा की सेना को दी जा रही हैं। यूरोप से लेकर उत्तरी अमरीका तक में सू ची और सेना के जनरल के आने-जाने पर प्रतिबंध लगे और उनकी संपत्ति ज़ब्त की जाए। अगर इससे रोहिंग्या मुसलमानों के साथ हो रही हिंसा नहीं रुकती तो यह मुद्दा संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में उठाया जाए और मामले को अंतरराष्ट्रीय अदालत के समक्ष भेजा जाए। नरसंहार पर रोक लगनी चाहिए। इस तरह, नागरिक संगठन यूरोप में आंग सान सू ची और सेना के ख़िलाफ संयुक्त राष्ट्र के निर्देशों का उल्लंघन करने के मामले में केस दर्ज करा सकते हैं। इस मामले में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार अपराधों की सुनवाई करने वाले स्पेन के लीगल सिस्टम का सहारा लेना चाहिए।
अमरीका में एलाइन टॉर्ट्स क्लेम्स ऐक्ट के तहत भी सू ची और सेना के शीर्ष अधिकारियों के ख़िलाफ़ केस दर्ज कराए जाएं। जापान पर भी दवाब बनाया जाए कि वह बर्मा पर प्रतिबंध लगाए। चीन को भी याद दिलाया जाना चाहिए कि उनकी चिंता सिर्फ़ कोकांग क्षेत्र तक सीमित नहीं है। जहां तक म्यांमार नीति की बात है, भारत भटक रहा है। तुर्की की शानदार शुरुआत को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को रोहिंग्या शरणार्थियों की मदद करने वाले बांग्लादेश की मानवीय और आर्थिक तौर पर सहायता करनी चाहिए। जब रवांडा और बोस्निया में नरसंहार हुआ तो पूरी दुनिया हाथ पर हाथ धरे असहाय नज़र आती रही। रोहिंग्या समुदाय को बचाने के लिए घड़ियाली आंसू काफ़ी नहीं हैं। यह समय आंग सान सू ची और सेना के ख़िलाफ़ सख़्त ऐक्शन लेने का है।
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